Saturday 30 December 2017

ब्रह्ममुहूर्त

🌞 ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों ? 🌞

रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है।

ब्रह्म का मतलब परम तत्व या परमात्मा। मुहूर्त यानी अनुकूल समय। रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात प्रात: 4 से 5.30 बजे का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है।

“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी”।
(ब्रह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्य का नाश करने वाली होती है।)

सिख धर्म में इस समय के लिए बेहद सुन्दर नाम है--"अमृत वेला", जिसके द्वारा इस समय का महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईश्वर भक्ति के लिए यह महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईवर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इस समय उठने से मनुष्य को सौंदर्य, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति होती है। उसका मन शांत और तन पवित्र होता है।

ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल होने का यह ऐसा फार्मूला है जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरूरत है।

पौराणिक महत्व -- वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।

शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है--

वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।
ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥
अर्थात- ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता हे।

ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति :--

ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू हो जाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।

इसलिए मिलती है सफलता व समृद्धि

आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।

ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे।

ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सफल, सुखी और समृद्ध होता है, क्यों? क्योंकि जल्दी उठने से दिनभर के कार्यों और योजनाओं को बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसलिए न केवल जीवन सफल होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने वाला हर व्यक्ति सुखी और समृद्ध हो सकता है। कारण वह जो काम करता है उसमें उसकी प्रगति होती है। विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहता है। जॉब (नौकरी) करने वाले से बॉस खुश रहता है। बिजनेसमैन अच्छी कमाई कर सकता है। बीमार आदमी की आय तो प्रभावित होती ही है, उल्टे खर्च बढऩे लगता है। सफलता उसी के कदम चूमती है जो समय का सदुपयोग करे और स्वस्थ रहे। अत: स्वस्थ और सफल रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठें।

वेदों में भी ब्रह्म मुहूर्त में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है।

प्रातारत्नं प्रातरिष्वा दधाति तं चिकित्वा प्रतिगृह्यनिधत्तो।
तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥ - ऋग्वेद-1/125/1
अर्थात- सुबह सूर्य उदय होने से पहले उठने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इसीलिए बुद्धिमान लोग इस समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। सुबह जल्दी उठने वाला व्यक्ति स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीर्घायु होता है।
यद्य सूर उदितोऽनागा मित्रोऽर्यमा। सुवाति सविता भग:॥ - सामवेद-35

अर्थात- व्यक्ति को सुबह सूर्योदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चाहिए। इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस समय की शुद्ध व निर्मल हवा से स्वास्थ्य और संपत्ति की वृद्धि होती है।
उद्यन्त्सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे।

अथर्ववेद- 7/16/२
अर्थात- सूरज उगने के बाद भी जो नहीं उठते या जागते उनका तेज खत्म हो जाता है।

व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।

जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या :--

प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से फेफड़ों में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना । इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए । सुबह 7 के बाद जो मल-त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।

प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है । इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पिये।

प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है।

दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या (आराम) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसी लिए भोजन वर्जित है । इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है ।

दोपहर 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए । इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।

दोपहर 3 से 5 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।

शाम 5 से 7 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है । इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए । शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है । देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।

रात्री 7 से 9 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है । इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है । अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है । आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।

रात्री 9 से 11 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

रात्री 11 से 1 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है । इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है । इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।

रात्री 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है । अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है । इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।

नोट :-

ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए ʹबुफे डिनरʹ से बचना चाहिए।

पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।

शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं। अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।

आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी।💥

सब सुखी और निरोगी हों !!

Friday 30 June 2017

रावण संहिता सामान्य नियम

*ज्योतिष पे चर्चा।।*
महाप्रतापी त्रिलोकपति रावण जिसे चारो वेद कंठस्थ थे,
ज्योतिष का सिद्ध ज्ञाता था। उसने रावण संहिता जैसा ग्रंथ रचा था
जिसके बल पर उसने शनि और यमराज तक को अपना दास बना लिया
था ज्योतिष ज्ञान से ही नारद त्रिकालज्ञ हुए
भगवान कृष्ण, भीष्म पितामह, कर्ण आदि महान
योद्धा भी ज्योतिष के अच्छे जानकर थे। ब्रह्मा के
मानस पुत्र भृगु ने भृगुसंहिता को लिखा. छठी
शताब्दी में वरामिहिर ने वृहज्जातक, वृहत्सन्हिता
और पंचसिद्धांतिका लिखी, सातवी
सदी में आर्यभट ने आर्यभटीय
की रचना की जिस में खगोल और गणित
की जानकारियाँ है। ऋषि पराशर रचित होरा शास्त्र
ज्योतिष का सिद्ध ग्रन्थ है। नील कंठी
वर्षफल देखने का एक अच्छा ग्रन्थ है। मुहूर्त देखने के लिए
मुहूर्त चिंतामणि एक अच्छा ग्रन्थ है। भाव प्रकाश,
मानसागरी, फलदीपिका, लघुजातकम,
प्रश्नमार्ग भी बहुप्रचलित ग्रन्थ है। बाल बोध
ज्योतिष, और अर्थ मार्तंड अच्छी पुस्तकें है।
कीरो व बेन्ह्म जैसे अंग्रेज ज्योतिषियों ने
भी हस्तरेखा ज्योतिष पर भी किताबें
लिखी नस्त्रेद्रम की
भविष्यवाणी विश्व प्रसिद्ध है।
ज्योतिष शास्त्र के महत्वपूर्ण भागः पंचांग अध्ययन,
कुंडली अध्ययन, वर्षफल अध्ययन, फलित ज्योतिष,
प्रश्न ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, टैरो कार्ड ज्ञान, सामुद्रिक
शास्त्र ज्ञान, अंक ज्योतिष, फेंगशुई, तन्त्र मन्त्र यंत्र ज्योतिष,
इसकी कई और भी विधियां है ज्योतिष को
जानने के लिए जैसे पैरट ज्योतिष, प्रश्नाश्लाका, रामचरितमानस
प्रश्नावली आदि।
पंचांगः
ज्योतिष सिखने के लिए पंचांग का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
पंचांग अर्थात जिसके पाँच अंग है तिथि, नक्षत्र, करण, योग, वार।
इन पाँच अंगो के माध्यम से ग्रहों की चाल
की गणना होती है।
तिथिः
कुल तिथियाँ 16 होती है,जो पंचांग में कृष्ण पक्ष व
शुकल पक्ष के अंतर्गत प्रदर्शित होती है,तिथियों के
नाम एकम् द्वितीया, तृतीया,
चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी,
सप्तमी, अष्टमी, नवमी,
दशमी, एकादशी, द्वाद्वशी,
त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और
पूर्णिमा है।
नक्षत्रः
नक्षत्रों की कुल संख्यां 27 होती
है,जिनके नाम इस प्रकार है
अंक नक्षत्र-नक्षत्रस्वामी पद(1,2,3,4)
1 अश्विनी-केतु (चु,चे,चो,ला)
2 भरणी-शुक्र (ली,लू,ले,ला)
3 कृत्तिका-सूर्य (अ,ई,उ,ए)
4 रोहिणी -चंद्र (ओ,वा,वी,वु)
5 मृगशीर्षा-मंगल (वे,वो,का,की)
6 आर्द्रा-राहु (कु,घ,ड.,छ)
7 पुनर्वसु-गुरु (के,को,हा,ही)
8 पुष्य-शनि (हु,हे,हो,ड)
9 अश्लेषा-बुध (डी,डू,डे,डो)
10 मघा-केतु (मा,मी,मू,मे)
11 पूर्बाफाल्गुनी-शुक्र (मो,टा,टी,टू)
12 उत्तरफाल्गुनी-सूर्य (टे,टे,पा,पी)
13 हस्त-चंद्र (पू,ष,ण,ठ)
14 चित्रा-मंगल (पे,पो,रा,री)
15 स्वाति-राहु (रू,रे,रो,ता)
16 विशाखा-गुरु (ती,तू,ते,तो)
17 अनुराधा-शनि (ना,नी,नू,ने)
18 ज्येष्ठा-बुध (नो,या,यी,यू)
19 मूला-केतु (ये,यो,भा,भी)
20 पूर्वाषाढ़ा-शुक्र (भू,धा,फा,ढा)
21 उत्तराषाढ़ा-सूर्य (भे,भो,जा,जी)
22 श्रवण-चंद्र (खी,खू,खे,खो)
23 धनष्ठा-मंगल (गा,गी,गु,गे)
24 शतभिषा-राहु (गो,सा,सी,सू)
25 पूर्वाभाद्रप्रद-गुरु (से,सो,दा,दी)
26 उत्तराभाद्रप्रद-शनि (दू,थ,झ,ञ)
27 रेवती-बुध (दे,दो,च,ची)
यदि 360 डिग्री को 27 से विभाजित किया जाए तो एक
नक्षत्र 13 डिग्री 20 अंश का होता है।
वारः अर्थात दिनों की संख्या सात है, सोमवार , मंगलवार
, बुधवार, वीरवार, शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
करणः तिथि के आधे भाग को अर्थात आधी तिथि जितने
समय में बीतती हैं उसे करण कहते है
ये कुल 11 है, जिनके नाम बव, बालव, कौलव तेतिल, गर, वणिज,
विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किश्तुघ्न है।
योगः सूर्य तथा चन्द्र के राश्यांशो के योग से बनने वाले 27 प्रकार
के योग होते है, जिनके नाम विष्कुम्भ, प्रीति,
आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सिद्ध, सुकर्मा, धृति, शुल,
वृद्धि, धु्रव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरियान,
परिघ, शिव, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र, वैधृति
वैदिक ज्योतिष में मुख्यतः ग्रह व तारों के प्रभाव का अध्ययन
किया जाता है। पृथ्वी सौर मंडल का एक तरह का
ग्रह है। इसके निवासियों पर सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों का
प्रभाव पड़ता है, ऐसा ज्योतिष की मान्यता है।
पृथ्वी एक विशेष कक्षा में चलायमान है।
पृथ्वी पर रहने वालों को सूर्य इसी में
गतिशील नजर आता है। इस कक्षा के आसपास कुछ
तारों के समूह हैं, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है और
इन्हीं 27 तारा समूहों यानी नक्षत्रों से
12 राशियों का निर्माण हुआ है। जिन्हें इस प्रकार जाना जाता है।
1-मेष, 2-वृष, 3-मिथुन, 4-कर्क, 5-सिंह, 6-कन्या, 7-तुला,
8-वृश्चिक, 9-धनु, 10-मकर, 11-कुंभ, 12-मीन।
प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है।
पूर्ण राशिचक्र 360 अंश का होता है।
ग्रह लिंग विशोंतरी दशा(वर्ष)
सूर्य पुर्लिंग 6 वर्ष
चंद्र स्त्रीलिंग 10 वर्ष
मंगल पुर्लिंग 7 वर्ष
बुध नपुंसक 17 वर्ष
बृहस्पति पुर्लिंग 16 वर्ष
शुक्र स्त्रीलिंग 20 वर्ष
शनि पुर्लिंग 9 वर्ष
राहु पुर्लिंग 18 वर्ष
केतु पुर्लिंग 17 वर्ष
राहु एवं केतु वास्तविक ग्रह नहीं हैं, इन्हें
ज्योतिष शास्त्र में छायाग्रह माना गया है।
ग्रहों की आपसी मित्रता-शत्रुता इस
प्रकार है...
ग्रह मित्र शत्रु सम
सूर्य चंद्र, मंगल, गुरु शुक्र, शनि बुध
चंद्र सूर्य, बुध मंगल, गुरु शुक्र शनि
मंगल सूर्य, चंद्र, गुरु बुध शुक्र, शनि
बुध सूर्य शुक्र,चंद्र मंगल, गुरु, शनि
गुरु सूर्य, चंद्र, मंगल बुध,शुक्र शनि
शुक्र बुध, शनि सूर्य, चंद्र, मंगल गुरु
शनि बुध, शुक्र सूर्य, चंद्र मंगल गुरु
राशियों का स्वभाव और उनका स्वामी...
राशि स्वभाव राशि स्वामी
मेष चर मंगल
वृषभ स्थिर शुक्र
मिथुन द्विस्वभाव बुध
कर्क चर चंद्र
सिंह स्थिर सूर्य
कन्या द्विस्वभाव बुध
तुला चर शुक्र
वृश्चिक स्थिर मंगल
धनु द्विस्वभाव गुरु
मकर चर शनि
कुंभ स्थिर शनि
मीन द्विस्वभाव गुरु
यदि 360 डिग्री को 12 से विभाजित किया जाए तो एक
राशि 30 डिग्री की होती है।
ग्रहो का कारकत्व
सूर्य - आत्मा ,पिता , मान-सम्मान ,प्रतिष्ठा ,नेत्र ,आरोग्यता
,प्रशासन ,मस्तिक , सुवर्ण ,गेंहू ,शक्ति मानक आदि लाल
वस्तुओं का कारक है
चंद्रमा - माता ,मन ,बुद्धि ,स्त्री ,धन ,चावल ,कपास
आदि श्वेत वस्त्र ,मोती, गला दाई आँख ,बाई आँख
,नाडी तंत्रादि
मंगल - पराक्रम , बल भूमि ,भाई , सेना , अग्नि ,गुड , मुंगा , ताम्र
,चोट , दुर्घटना आदि का कारक है
बुध - यह विद्या ,वाणी ,बुद्धि ,मित्र , सुख , मातुल
,बुध -बांधव ,गणित ,शिल्प ,ज्योतिष ,चाची
,मामी , हरिवस्त्र ,घृत, पन्ना रत्न आदि का कारक है
गुरु -यह विवेक ,बुद्धि ,मित्र , शरीर पुष्टि पुत्र
ज्ञान ,शास्त्र -धर्म ,बड़े भाई ,उदारता ,पुष्प -राग
,पीतवर्ण ,सुवर्ण ,ब्राह्मण ,मंत्री ,
सत्वगुण ,पति,सुख ,पौत्र,पितामह आदि का कारक है
शुक्र- आयु , वाहन ,आभूषणादि ,सांसारिक सुख ,व्यापार,कामसुख
,वीर्य ,चांदी,काव्य -रूचि
,संगीत ,श्वेत ,वस्त्र ,चांदी ,
हीरा,दुग्धादि पदार्थ का कारक है
शनि - आयु ,जीवन ,मुत्युकारक ,सेवक ,दुःख ,रोग
,विपति ,शिल्प ,भैंस, केश ,तिल ,तेल ,नीलम ,लोहाआदि
पदार्थो का कारक है
राहु -सर्प ,लाटरी ,गुप्त -धन ,भुत - बाधा,प्रयास
,तस्करी कम्बल,नारियल ,सप्तधान्य ,गुमेद आदि
पदार्थो का कारक है
केतु - यह गुप्त शक्ति ,कठिन कार्य ,दुख, धूम्ररंग ,अति
पीड़ा ,चर्मरोग ,व्रण, तन्त्र-विद्या,बकरी
,नीच जाती ,कुष्णवस्त्र ,कंबलादि, पदार्थो
का कारक है
जन्म कुंडली में यदि कोई कारक ग्रह शुभ भाव में
पड़ा हो या शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट हो तो कारक ग्रह से संबंधित
सुख की प्राप्ति होगी। जब कोई ग्रह
अशुभ भाव में पड़ा हो अथवा पापी गृह से युक्त या
दुष्ट हो तो उस ग्रह के कारकत्व से संबंधित सुख में
कमी आएगी ।
द्वादश भावो द्वारा विचारणीय विषय
कुंडली में प्रत्येक भाव का अपना अपना महत्व होता
है। इन्ही द्वादश भावो में स्थिति राशियां एवं ग्रह
अपना शुभआशुभ फल प्रगट करते है। द्वादश भावों में प्रत्येक
भाव में विचारणीय विषयो के संबंध में लिखा है
प्रथम भावः इस भाव में मुख्य रूप से जातक का
शारीरिक गठन ,स्वास्थय ,आयुपरमान,
शारीरिक रूप ,वर्ण, चिन्ह जाती ,स्वभाव
,गुण ,आकृति ,सुख दुखः ,शिर ,पितामह ,जन्म ,प्रारम्भिक
जीवन ,वर्तमान कालादि का विचार किया जाता है लग्न
एवं लग्नेश की स्थिति के बलाबलनुसार जातक स्वास्थ्य
स्वभाव तथा व्यक्तित्व का ज्ञान किया जाता है इस भाव में मिथुन
,कन्या ,तुला ,एवं कुंभ राशि बलवान मानी
जाती है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य है।
द्वितीय भावः शरीर की रक्षा
के लिए धन अन्न ,वस्त्र द्रव्य एवं कुटुम्बदि साधनो
की आवश्यकता होती है। इस कारण धन
भाव भी कहते है। भाव से धन संग्रह ,परिवारिक
सुख ,मित्र ,विद्या ,खाद्य पदार्थ ,वस्त्र ,मुख ,दाहिनी
आँख ,नाक ,वाणी ,स्वर संगीत आदि कला
,विद्वता ,लेखन कला ,अर्जित धन ,सम्पति ,सुवर्णदि धातुओं का
क्रयविक्रय आदि का विचार किया जाता है।
द्वितीय भाव को मारक स्थान भी कहते
है इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है। तृतीय
भावः इस भाव से भाई बहनो का सुख ,सहोदर, पराक्रम ,नौकर-
चाकर ,साहस ,शौर्य, धैर्य, गायन ,भोगाभ्यास
,नजदीकी संबंधियो का सुख ,रेलयात्रा
,दाहिना कान ,हिम्मत ,सेना ,सेवक, माता पिता की मुत्यु
,चाचा ,मामा ,दमा ,खांसी, श्वास, भुजा, कर्ण आदि रोगो का
विचार किया जाता है।तीसरे भाव का कारक ग्रह मंगल
है।
चतुर्थ भावः इस भाव से सुख दुख ,माता ,स्थायी
सम्पति ,मकान ,जायदाद ,भूमि ,सवारी ,चैपाया, मित्र
बन्धु बांधव ,परोपकार के काम ,गृह खेत ,तालाब पानी
,नदी ,बाग ,बगीचा ,मामा ,श्वसुर
,नानी ,पेट , छाती ,आदि के रोग ,गृहस्थ्य
जीवन इस भाव से किया जाता है चंद्रमा व बुध ग्रह
इस स्थान के कारक है
पंचम भावः इस भाव से बुद्धि ,नीति, विद्या ,गर्भ ,संतान
से सुख दुख ,गुप्त मंत्र ,शास्त्र ज्ञान ,विद्धता ,मंत्र सिद्धि ,
विचार शक्ति ,लेखन कला ,लाटरी शेयर आदि आकास्मिक
धन लाभ या हानि ,यश अपयश का सुख प्रबन्धात्मक योग्यता
,पूर्वजन्म की स्थिति ,भविष्य ज्ञान ,आध्यात्मिक
रूचि ,मनोरंजन प्रेम संबंध ,इच्छाशक्ति ,जेठराग्नि ,गर्भाशय ,पेट
,मूत्रसह्यादि संबंधी विकारो का विचार पंचम भाव से
करते है। इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है।
षष्ठ् भाव: इस भाव से शत्रु रोग ,ऋण ,चोरी या
दुर्घटना आदि की स्थिति ,दुष्टकर्म ,युद्ध ,अपयश
,मामा , मौसी ,सौतली माता से सुख दुख
,विश्वासघात ,पाप ,कर्म ,हानि ,शव बन्धुवर्ग से विरोध ,नाभि ,गुदा
स्थान , कमर ,संबंधी रोगो का विचार षष्ट भाव से करते
है शनि व मंगल भाव के कारक माने जाते है
सप्तम भावः इस भाव से स्त्री एवं विवाह सुख ,काम
वासना ,पति पत्नी संबंध ,साझेदारी के काम,
व्यापार में लाभ हानि वाद विवाद, मुकदमा ,कलह ,पितामह , प्रवास
,विदेश गमन ,भाई बहन की संतान ,लघु यात्राएं ,दैनिक
आय ,समझौता ,प्रत्येक शत्रु ,काम विकार ,बवासीर
वस्ति ,जननेन्द्रिय संबंध गुप्त रोगो का विचार किया जाता है इस
केंद्र भाव में वृश्चिक राशि बलवान होती है इसे मारक
स्थान भी कहते है इस भाव का कारक ग्रह शुक्र
है
अष्ट्म भावः इस भाव से मुत्यु के कारण ,आयु ,गुप्तधन
,की प्राप्ति ,विध्न ,पुरातत्व प्रेम ,समुद्रादि द्वारा
दीर्घ यात्राएं ,पूर्व जन्म की
जानकारी मृत्यु के बाद स्थिति, स्त्री से
भूमि धन आदि का लाभ दुर्घटना ,यातना ,गुदा , अंडकोष आदि
गुप्तेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगो एवं कष्टो ,पति या
पत्नी की आयु का मान ,ताऊ ,विघ्न ,दास्य
वर्ग एवं विषम परिस्थितियो का विचार अष्ट्म भाव से किया जाता है
नवम भाव: इस भाव से मानसिक वृति ,धर्म ,दान ,शील
,पुण्य ,तीर्थ यात्रा ,विद्या ,भाग्यो दय ,विदेश यात्रा
,मंत्र सिद्धि ,उत्तम विद्या ,बड़े भाई, पौत्र ,बहनोई ,भावजादि से
संबंध ,धार्मिक पुर्नजन्म प्रवृति संबंधी ज्ञान ,मंदिर
,गुरुद्वारा आदि धर्म स्थल गुरु भक्ति ,यश कीर्ति एवं
जंघा आदि विचार किया जाता है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य व गुरु
है।
दशम भावः इस भाव को केंद्र एवं कर्म भाव भी कहते
है इस भाव से पिता का सुख दुख, अधिकार ,राज्य प्रतिष्ठा
,पदोन्नति ,नौकरी, व्यापार, विदेश गमन,
जीविका का साधन ,कार्य सिद्धि नेतृत्व ,सरकार ,सास
,वर्षा ,वायु यानादि, आकाशीय वृतांत एवं घुटनो आदि में
विकारो का दशम से देखा जाता है। दशमभाव में मेष, वृष, सिंह, धनु
(उत्तरार्ध),मकर राशि का पूर्वाद्ध बलवान होता है। दशम भाव के
कारक ग्रह सूर्य ,बुध गुरु ,एवं शनि है।
एकादश भाव: इस भाव से लाभ आय भाई ,मित्र जामाता (जमाई)
,ऐश्वर्य सम्पति ,मोटर -वाहन के सुख ,गुप्तधन, बड़े भाई या
बड़ी बहन ,दांया कान , मांगलिक कार्य, ऐश्वर्य
की वस्तु ,द्वितीय पत्नी एवं
पिंडलियों का विचार 11वें भाव से करते है। इस भाव का कारकग्रह
गुरू है।
दादश भाव: इसको व्यय स्थान व्यय स्थान भी कहते
है इस भाव से धन हानि ,खर्च ,दान ,दंड व्यसन ,रोग, शत्रु
पक्ष से हानि, बाहरी स्थानो से संबंधित नेत्र
पीड़ा, फजूल खर्च ,स्त्री पुरुष, गुप्त
सम्बन्ध, शयन सुख , दुख -पीड़ा बंधन (जेलादि)
,मृत्यु के बाद प्राणी की गति मोक्ष ,कर्ज,
षड्यंत्र ,धोखा ,राजकीय संकट ,शरीर में
पाँव एवं तलुवों आदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक
ग्रह शनि है।
इसके इलावा जातक की जन्म कुंडली में
और भी कुंडलिया होती है ये
वर्गीय कुंडलिया लग्न कुंडली का विस्तार
होती है इन से भी जातक के
जीवन का फलित किया जाता है इनके नाम इस प्रकार
है लग्न कुंडली ,चन्द्र कुंडली ,सूर्य
कुंडली ,होरा कुंडली , द्रेष्काण
कुंडली ,चतुर्थांश कुंडली , पंचमांश
कुंडली , षष्ठांश कुंडली , सप्तमांश
कुंडली , अष्ठमांश कुंडली , नवमांश
कुंडली , दशमांश कुंडली , एकादशांश
कुंडली , द्वादशांश कुंडली , षोडशांश
कुंडली , विशांश कुंडली , चतुर्विशांश
कुंडली , सप्तविशांश कुंडली , त्रिशांश
कुंडली , खवेदांश कुंडली , अक्ष्वेदांश
कुंडली , षष्टयंश कुंडली के इलावा पाद,
उपपाद, मुंथादि का विचार किया जाता है।।