Friday 30 June 2017

रावण संहिता सामान्य नियम

*ज्योतिष पे चर्चा।।*
महाप्रतापी त्रिलोकपति रावण जिसे चारो वेद कंठस्थ थे,
ज्योतिष का सिद्ध ज्ञाता था। उसने रावण संहिता जैसा ग्रंथ रचा था
जिसके बल पर उसने शनि और यमराज तक को अपना दास बना लिया
था ज्योतिष ज्ञान से ही नारद त्रिकालज्ञ हुए
भगवान कृष्ण, भीष्म पितामह, कर्ण आदि महान
योद्धा भी ज्योतिष के अच्छे जानकर थे। ब्रह्मा के
मानस पुत्र भृगु ने भृगुसंहिता को लिखा. छठी
शताब्दी में वरामिहिर ने वृहज्जातक, वृहत्सन्हिता
और पंचसिद्धांतिका लिखी, सातवी
सदी में आर्यभट ने आर्यभटीय
की रचना की जिस में खगोल और गणित
की जानकारियाँ है। ऋषि पराशर रचित होरा शास्त्र
ज्योतिष का सिद्ध ग्रन्थ है। नील कंठी
वर्षफल देखने का एक अच्छा ग्रन्थ है। मुहूर्त देखने के लिए
मुहूर्त चिंतामणि एक अच्छा ग्रन्थ है। भाव प्रकाश,
मानसागरी, फलदीपिका, लघुजातकम,
प्रश्नमार्ग भी बहुप्रचलित ग्रन्थ है। बाल बोध
ज्योतिष, और अर्थ मार्तंड अच्छी पुस्तकें है।
कीरो व बेन्ह्म जैसे अंग्रेज ज्योतिषियों ने
भी हस्तरेखा ज्योतिष पर भी किताबें
लिखी नस्त्रेद्रम की
भविष्यवाणी विश्व प्रसिद्ध है।
ज्योतिष शास्त्र के महत्वपूर्ण भागः पंचांग अध्ययन,
कुंडली अध्ययन, वर्षफल अध्ययन, फलित ज्योतिष,
प्रश्न ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, टैरो कार्ड ज्ञान, सामुद्रिक
शास्त्र ज्ञान, अंक ज्योतिष, फेंगशुई, तन्त्र मन्त्र यंत्र ज्योतिष,
इसकी कई और भी विधियां है ज्योतिष को
जानने के लिए जैसे पैरट ज्योतिष, प्रश्नाश्लाका, रामचरितमानस
प्रश्नावली आदि।
पंचांगः
ज्योतिष सिखने के लिए पंचांग का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
पंचांग अर्थात जिसके पाँच अंग है तिथि, नक्षत्र, करण, योग, वार।
इन पाँच अंगो के माध्यम से ग्रहों की चाल
की गणना होती है।
तिथिः
कुल तिथियाँ 16 होती है,जो पंचांग में कृष्ण पक्ष व
शुकल पक्ष के अंतर्गत प्रदर्शित होती है,तिथियों के
नाम एकम् द्वितीया, तृतीया,
चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी,
सप्तमी, अष्टमी, नवमी,
दशमी, एकादशी, द्वाद्वशी,
त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और
पूर्णिमा है।
नक्षत्रः
नक्षत्रों की कुल संख्यां 27 होती
है,जिनके नाम इस प्रकार है
अंक नक्षत्र-नक्षत्रस्वामी पद(1,2,3,4)
1 अश्विनी-केतु (चु,चे,चो,ला)
2 भरणी-शुक्र (ली,लू,ले,ला)
3 कृत्तिका-सूर्य (अ,ई,उ,ए)
4 रोहिणी -चंद्र (ओ,वा,वी,वु)
5 मृगशीर्षा-मंगल (वे,वो,का,की)
6 आर्द्रा-राहु (कु,घ,ड.,छ)
7 पुनर्वसु-गुरु (के,को,हा,ही)
8 पुष्य-शनि (हु,हे,हो,ड)
9 अश्लेषा-बुध (डी,डू,डे,डो)
10 मघा-केतु (मा,मी,मू,मे)
11 पूर्बाफाल्गुनी-शुक्र (मो,टा,टी,टू)
12 उत्तरफाल्गुनी-सूर्य (टे,टे,पा,पी)
13 हस्त-चंद्र (पू,ष,ण,ठ)
14 चित्रा-मंगल (पे,पो,रा,री)
15 स्वाति-राहु (रू,रे,रो,ता)
16 विशाखा-गुरु (ती,तू,ते,तो)
17 अनुराधा-शनि (ना,नी,नू,ने)
18 ज्येष्ठा-बुध (नो,या,यी,यू)
19 मूला-केतु (ये,यो,भा,भी)
20 पूर्वाषाढ़ा-शुक्र (भू,धा,फा,ढा)
21 उत्तराषाढ़ा-सूर्य (भे,भो,जा,जी)
22 श्रवण-चंद्र (खी,खू,खे,खो)
23 धनष्ठा-मंगल (गा,गी,गु,गे)
24 शतभिषा-राहु (गो,सा,सी,सू)
25 पूर्वाभाद्रप्रद-गुरु (से,सो,दा,दी)
26 उत्तराभाद्रप्रद-शनि (दू,थ,झ,ञ)
27 रेवती-बुध (दे,दो,च,ची)
यदि 360 डिग्री को 27 से विभाजित किया जाए तो एक
नक्षत्र 13 डिग्री 20 अंश का होता है।
वारः अर्थात दिनों की संख्या सात है, सोमवार , मंगलवार
, बुधवार, वीरवार, शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
करणः तिथि के आधे भाग को अर्थात आधी तिथि जितने
समय में बीतती हैं उसे करण कहते है
ये कुल 11 है, जिनके नाम बव, बालव, कौलव तेतिल, गर, वणिज,
विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किश्तुघ्न है।
योगः सूर्य तथा चन्द्र के राश्यांशो के योग से बनने वाले 27 प्रकार
के योग होते है, जिनके नाम विष्कुम्भ, प्रीति,
आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सिद्ध, सुकर्मा, धृति, शुल,
वृद्धि, धु्रव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरियान,
परिघ, शिव, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र, वैधृति
वैदिक ज्योतिष में मुख्यतः ग्रह व तारों के प्रभाव का अध्ययन
किया जाता है। पृथ्वी सौर मंडल का एक तरह का
ग्रह है। इसके निवासियों पर सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों का
प्रभाव पड़ता है, ऐसा ज्योतिष की मान्यता है।
पृथ्वी एक विशेष कक्षा में चलायमान है।
पृथ्वी पर रहने वालों को सूर्य इसी में
गतिशील नजर आता है। इस कक्षा के आसपास कुछ
तारों के समूह हैं, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है और
इन्हीं 27 तारा समूहों यानी नक्षत्रों से
12 राशियों का निर्माण हुआ है। जिन्हें इस प्रकार जाना जाता है।
1-मेष, 2-वृष, 3-मिथुन, 4-कर्क, 5-सिंह, 6-कन्या, 7-तुला,
8-वृश्चिक, 9-धनु, 10-मकर, 11-कुंभ, 12-मीन।
प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है।
पूर्ण राशिचक्र 360 अंश का होता है।
ग्रह लिंग विशोंतरी दशा(वर्ष)
सूर्य पुर्लिंग 6 वर्ष
चंद्र स्त्रीलिंग 10 वर्ष
मंगल पुर्लिंग 7 वर्ष
बुध नपुंसक 17 वर्ष
बृहस्पति पुर्लिंग 16 वर्ष
शुक्र स्त्रीलिंग 20 वर्ष
शनि पुर्लिंग 9 वर्ष
राहु पुर्लिंग 18 वर्ष
केतु पुर्लिंग 17 वर्ष
राहु एवं केतु वास्तविक ग्रह नहीं हैं, इन्हें
ज्योतिष शास्त्र में छायाग्रह माना गया है।
ग्रहों की आपसी मित्रता-शत्रुता इस
प्रकार है...
ग्रह मित्र शत्रु सम
सूर्य चंद्र, मंगल, गुरु शुक्र, शनि बुध
चंद्र सूर्य, बुध मंगल, गुरु शुक्र शनि
मंगल सूर्य, चंद्र, गुरु बुध शुक्र, शनि
बुध सूर्य शुक्र,चंद्र मंगल, गुरु, शनि
गुरु सूर्य, चंद्र, मंगल बुध,शुक्र शनि
शुक्र बुध, शनि सूर्य, चंद्र, मंगल गुरु
शनि बुध, शुक्र सूर्य, चंद्र मंगल गुरु
राशियों का स्वभाव और उनका स्वामी...
राशि स्वभाव राशि स्वामी
मेष चर मंगल
वृषभ स्थिर शुक्र
मिथुन द्विस्वभाव बुध
कर्क चर चंद्र
सिंह स्थिर सूर्य
कन्या द्विस्वभाव बुध
तुला चर शुक्र
वृश्चिक स्थिर मंगल
धनु द्विस्वभाव गुरु
मकर चर शनि
कुंभ स्थिर शनि
मीन द्विस्वभाव गुरु
यदि 360 डिग्री को 12 से विभाजित किया जाए तो एक
राशि 30 डिग्री की होती है।
ग्रहो का कारकत्व
सूर्य - आत्मा ,पिता , मान-सम्मान ,प्रतिष्ठा ,नेत्र ,आरोग्यता
,प्रशासन ,मस्तिक , सुवर्ण ,गेंहू ,शक्ति मानक आदि लाल
वस्तुओं का कारक है
चंद्रमा - माता ,मन ,बुद्धि ,स्त्री ,धन ,चावल ,कपास
आदि श्वेत वस्त्र ,मोती, गला दाई आँख ,बाई आँख
,नाडी तंत्रादि
मंगल - पराक्रम , बल भूमि ,भाई , सेना , अग्नि ,गुड , मुंगा , ताम्र
,चोट , दुर्घटना आदि का कारक है
बुध - यह विद्या ,वाणी ,बुद्धि ,मित्र , सुख , मातुल
,बुध -बांधव ,गणित ,शिल्प ,ज्योतिष ,चाची
,मामी , हरिवस्त्र ,घृत, पन्ना रत्न आदि का कारक है
गुरु -यह विवेक ,बुद्धि ,मित्र , शरीर पुष्टि पुत्र
ज्ञान ,शास्त्र -धर्म ,बड़े भाई ,उदारता ,पुष्प -राग
,पीतवर्ण ,सुवर्ण ,ब्राह्मण ,मंत्री ,
सत्वगुण ,पति,सुख ,पौत्र,पितामह आदि का कारक है
शुक्र- आयु , वाहन ,आभूषणादि ,सांसारिक सुख ,व्यापार,कामसुख
,वीर्य ,चांदी,काव्य -रूचि
,संगीत ,श्वेत ,वस्त्र ,चांदी ,
हीरा,दुग्धादि पदार्थ का कारक है
शनि - आयु ,जीवन ,मुत्युकारक ,सेवक ,दुःख ,रोग
,विपति ,शिल्प ,भैंस, केश ,तिल ,तेल ,नीलम ,लोहाआदि
पदार्थो का कारक है
राहु -सर्प ,लाटरी ,गुप्त -धन ,भुत - बाधा,प्रयास
,तस्करी कम्बल,नारियल ,सप्तधान्य ,गुमेद आदि
पदार्थो का कारक है
केतु - यह गुप्त शक्ति ,कठिन कार्य ,दुख, धूम्ररंग ,अति
पीड़ा ,चर्मरोग ,व्रण, तन्त्र-विद्या,बकरी
,नीच जाती ,कुष्णवस्त्र ,कंबलादि, पदार्थो
का कारक है
जन्म कुंडली में यदि कोई कारक ग्रह शुभ भाव में
पड़ा हो या शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट हो तो कारक ग्रह से संबंधित
सुख की प्राप्ति होगी। जब कोई ग्रह
अशुभ भाव में पड़ा हो अथवा पापी गृह से युक्त या
दुष्ट हो तो उस ग्रह के कारकत्व से संबंधित सुख में
कमी आएगी ।
द्वादश भावो द्वारा विचारणीय विषय
कुंडली में प्रत्येक भाव का अपना अपना महत्व होता
है। इन्ही द्वादश भावो में स्थिति राशियां एवं ग्रह
अपना शुभआशुभ फल प्रगट करते है। द्वादश भावों में प्रत्येक
भाव में विचारणीय विषयो के संबंध में लिखा है
प्रथम भावः इस भाव में मुख्य रूप से जातक का
शारीरिक गठन ,स्वास्थय ,आयुपरमान,
शारीरिक रूप ,वर्ण, चिन्ह जाती ,स्वभाव
,गुण ,आकृति ,सुख दुखः ,शिर ,पितामह ,जन्म ,प्रारम्भिक
जीवन ,वर्तमान कालादि का विचार किया जाता है लग्न
एवं लग्नेश की स्थिति के बलाबलनुसार जातक स्वास्थ्य
स्वभाव तथा व्यक्तित्व का ज्ञान किया जाता है इस भाव में मिथुन
,कन्या ,तुला ,एवं कुंभ राशि बलवान मानी
जाती है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य है।
द्वितीय भावः शरीर की रक्षा
के लिए धन अन्न ,वस्त्र द्रव्य एवं कुटुम्बदि साधनो
की आवश्यकता होती है। इस कारण धन
भाव भी कहते है। भाव से धन संग्रह ,परिवारिक
सुख ,मित्र ,विद्या ,खाद्य पदार्थ ,वस्त्र ,मुख ,दाहिनी
आँख ,नाक ,वाणी ,स्वर संगीत आदि कला
,विद्वता ,लेखन कला ,अर्जित धन ,सम्पति ,सुवर्णदि धातुओं का
क्रयविक्रय आदि का विचार किया जाता है।
द्वितीय भाव को मारक स्थान भी कहते
है इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है। तृतीय
भावः इस भाव से भाई बहनो का सुख ,सहोदर, पराक्रम ,नौकर-
चाकर ,साहस ,शौर्य, धैर्य, गायन ,भोगाभ्यास
,नजदीकी संबंधियो का सुख ,रेलयात्रा
,दाहिना कान ,हिम्मत ,सेना ,सेवक, माता पिता की मुत्यु
,चाचा ,मामा ,दमा ,खांसी, श्वास, भुजा, कर्ण आदि रोगो का
विचार किया जाता है।तीसरे भाव का कारक ग्रह मंगल
है।
चतुर्थ भावः इस भाव से सुख दुख ,माता ,स्थायी
सम्पति ,मकान ,जायदाद ,भूमि ,सवारी ,चैपाया, मित्र
बन्धु बांधव ,परोपकार के काम ,गृह खेत ,तालाब पानी
,नदी ,बाग ,बगीचा ,मामा ,श्वसुर
,नानी ,पेट , छाती ,आदि के रोग ,गृहस्थ्य
जीवन इस भाव से किया जाता है चंद्रमा व बुध ग्रह
इस स्थान के कारक है
पंचम भावः इस भाव से बुद्धि ,नीति, विद्या ,गर्भ ,संतान
से सुख दुख ,गुप्त मंत्र ,शास्त्र ज्ञान ,विद्धता ,मंत्र सिद्धि ,
विचार शक्ति ,लेखन कला ,लाटरी शेयर आदि आकास्मिक
धन लाभ या हानि ,यश अपयश का सुख प्रबन्धात्मक योग्यता
,पूर्वजन्म की स्थिति ,भविष्य ज्ञान ,आध्यात्मिक
रूचि ,मनोरंजन प्रेम संबंध ,इच्छाशक्ति ,जेठराग्नि ,गर्भाशय ,पेट
,मूत्रसह्यादि संबंधी विकारो का विचार पंचम भाव से
करते है। इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है।
षष्ठ् भाव: इस भाव से शत्रु रोग ,ऋण ,चोरी या
दुर्घटना आदि की स्थिति ,दुष्टकर्म ,युद्ध ,अपयश
,मामा , मौसी ,सौतली माता से सुख दुख
,विश्वासघात ,पाप ,कर्म ,हानि ,शव बन्धुवर्ग से विरोध ,नाभि ,गुदा
स्थान , कमर ,संबंधी रोगो का विचार षष्ट भाव से करते
है शनि व मंगल भाव के कारक माने जाते है
सप्तम भावः इस भाव से स्त्री एवं विवाह सुख ,काम
वासना ,पति पत्नी संबंध ,साझेदारी के काम,
व्यापार में लाभ हानि वाद विवाद, मुकदमा ,कलह ,पितामह , प्रवास
,विदेश गमन ,भाई बहन की संतान ,लघु यात्राएं ,दैनिक
आय ,समझौता ,प्रत्येक शत्रु ,काम विकार ,बवासीर
वस्ति ,जननेन्द्रिय संबंध गुप्त रोगो का विचार किया जाता है इस
केंद्र भाव में वृश्चिक राशि बलवान होती है इसे मारक
स्थान भी कहते है इस भाव का कारक ग्रह शुक्र
है
अष्ट्म भावः इस भाव से मुत्यु के कारण ,आयु ,गुप्तधन
,की प्राप्ति ,विध्न ,पुरातत्व प्रेम ,समुद्रादि द्वारा
दीर्घ यात्राएं ,पूर्व जन्म की
जानकारी मृत्यु के बाद स्थिति, स्त्री से
भूमि धन आदि का लाभ दुर्घटना ,यातना ,गुदा , अंडकोष आदि
गुप्तेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगो एवं कष्टो ,पति या
पत्नी की आयु का मान ,ताऊ ,विघ्न ,दास्य
वर्ग एवं विषम परिस्थितियो का विचार अष्ट्म भाव से किया जाता है
नवम भाव: इस भाव से मानसिक वृति ,धर्म ,दान ,शील
,पुण्य ,तीर्थ यात्रा ,विद्या ,भाग्यो दय ,विदेश यात्रा
,मंत्र सिद्धि ,उत्तम विद्या ,बड़े भाई, पौत्र ,बहनोई ,भावजादि से
संबंध ,धार्मिक पुर्नजन्म प्रवृति संबंधी ज्ञान ,मंदिर
,गुरुद्वारा आदि धर्म स्थल गुरु भक्ति ,यश कीर्ति एवं
जंघा आदि विचार किया जाता है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य व गुरु
है।
दशम भावः इस भाव को केंद्र एवं कर्म भाव भी कहते
है इस भाव से पिता का सुख दुख, अधिकार ,राज्य प्रतिष्ठा
,पदोन्नति ,नौकरी, व्यापार, विदेश गमन,
जीविका का साधन ,कार्य सिद्धि नेतृत्व ,सरकार ,सास
,वर्षा ,वायु यानादि, आकाशीय वृतांत एवं घुटनो आदि में
विकारो का दशम से देखा जाता है। दशमभाव में मेष, वृष, सिंह, धनु
(उत्तरार्ध),मकर राशि का पूर्वाद्ध बलवान होता है। दशम भाव के
कारक ग्रह सूर्य ,बुध गुरु ,एवं शनि है।
एकादश भाव: इस भाव से लाभ आय भाई ,मित्र जामाता (जमाई)
,ऐश्वर्य सम्पति ,मोटर -वाहन के सुख ,गुप्तधन, बड़े भाई या
बड़ी बहन ,दांया कान , मांगलिक कार्य, ऐश्वर्य
की वस्तु ,द्वितीय पत्नी एवं
पिंडलियों का विचार 11वें भाव से करते है। इस भाव का कारकग्रह
गुरू है।
दादश भाव: इसको व्यय स्थान व्यय स्थान भी कहते
है इस भाव से धन हानि ,खर्च ,दान ,दंड व्यसन ,रोग, शत्रु
पक्ष से हानि, बाहरी स्थानो से संबंधित नेत्र
पीड़ा, फजूल खर्च ,स्त्री पुरुष, गुप्त
सम्बन्ध, शयन सुख , दुख -पीड़ा बंधन (जेलादि)
,मृत्यु के बाद प्राणी की गति मोक्ष ,कर्ज,
षड्यंत्र ,धोखा ,राजकीय संकट ,शरीर में
पाँव एवं तलुवों आदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक
ग्रह शनि है।
इसके इलावा जातक की जन्म कुंडली में
और भी कुंडलिया होती है ये
वर्गीय कुंडलिया लग्न कुंडली का विस्तार
होती है इन से भी जातक के
जीवन का फलित किया जाता है इनके नाम इस प्रकार
है लग्न कुंडली ,चन्द्र कुंडली ,सूर्य
कुंडली ,होरा कुंडली , द्रेष्काण
कुंडली ,चतुर्थांश कुंडली , पंचमांश
कुंडली , षष्ठांश कुंडली , सप्तमांश
कुंडली , अष्ठमांश कुंडली , नवमांश
कुंडली , दशमांश कुंडली , एकादशांश
कुंडली , द्वादशांश कुंडली , षोडशांश
कुंडली , विशांश कुंडली , चतुर्विशांश
कुंडली , सप्तविशांश कुंडली , त्रिशांश
कुंडली , खवेदांश कुंडली , अक्ष्वेदांश
कुंडली , षष्टयंश कुंडली के इलावा पाद,
उपपाद, मुंथादि का विचार किया जाता है।।

वर्गोत्तम

वर्गोत्तम ग्रह-

जब कोई लग्न/ग्रह लग्न कुंडली के अतिरिक्त अन्य वर्ग कुंडलियों मे भी एक ही राशि मे हो तो उसे वर्गोत्तम लग्न/ग्रह कहते हैं चर राशि मे पहला नवांश,स्थिर राशि मे दूसरा तथा द्विस्वभाव राशि मे तीसरा नवांश वर्गोत्तम होता हैं |

जब कोई ग्रह अथवा लग्न दो वर्गो मे वर्गोत्तम होता हैं उसे पारिजातांश कहते हैं इसी प्रकार 3 वर्गो मे उत्तमांश,4 वर्गो मे गोपुरांश,5 वर्गो मे सिंहासनांश,6 वर्गो मे पर्वतांश,7 वर्गो मे देवलोकांश,8 वर्गो मे ब्रह्मलोकांश,9 वर्गो मे एरावतांश,तथा 10 वर्गो मे गया ग्रह श्रीधामांश कहलाता हैं | यह दस वर्ग लग्न,होरा,डी3,डी7,डी9,डी10,डी12,डी16,डी20,व डी60 होते हैं  |

मेष राशि के अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण (0-3’20) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

वृष राशि के रोहिणी नक्षत्र के दूसरे चरण (13’20-16’40) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

मिथुन राशि के पुनर्वसु नक्षत्र के तीसरे चरण (26’40-30’00) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

कर्क राशि के पुनर्वसु नक्षत्र के प्रथम चरण (00-3’20) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

सिंह राशि के पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के प्रथम चरण (13’20-16’40) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र के दूसरे चरण (26’40-30’00) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

तुला राशि के चित्रा नक्षत्र के तीसरे चरण (00-3’20) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

वृश्चिक राशि के अनुराधा नक्षत्र के चतुर्थ चरण (13’20-16’40) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

धनु राशि के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के प्रथम चरण (26’40-30’00) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

मकर राशि के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के दूसरे चरण (00-3’20) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

कुम्भ राशि के शतभीषा नक्षत्र के तीसरे चरण (13’20-16’40) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

मीन राशि के रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण (26’40-30’00) का ग्रह वर्गोत्तम होता हैं |

यहाँ ध्यान दे की नक्षत्र राशि मे गए ग्रह के अंशो के अनुसार लिए गए हैं | मेष व तुला राशि मे 0’0 से 2’00 अंश तक गया कोई भी ग्रह 10 मे से 10 वर्गो मे वर्गोत्तम हो जाएगा |

Thursday 1 June 2017

चोरी व ज्योतिष

ज्योतिष द्वारा चोरी गयी वस्तू का ज्ञान ...
कभी -कभी घरों में छोटी मोटी चोरी की घटना घट जाती है।तब एक छट -पटाहट सी रहती है ,चोर कौन हो सकता है।ज्योतिष द्वारा इसका सटीक पता प्रश्न कुंडली से लगाया
जाता है।
जब भी चोरी का पता लगता है उस समय को नोट कर लीजिये।अगर किसी को जन्मकुंडली देखने का ज्ञान है तो ठीक है नहीं तो किसी भी ज्योतिष के पास समय को बता कर समस्या कासमाधान किया जा सकता है।
चोरी होने की सूचना मिलते ही तुरंत प्रश्न कुंडली बनायें।
इन लग्नो में खोयी वस्तु ,उसके दिखाए गए लग्नो के सामने की दिशा में गयी है
मेष या वृषभ लग्न ----पूर्व दिशा
मिथुन लग्न ----- अग्नि कोण
कर्क लग्न ---- दक्षिण
सिंह लग्न ------------ नैरित्य कोण
कन्या लग्न --------- उत्तर दिशा
तुला और वृश्चिक लग्न -- पश्चिम दिशा
धनु लग्न ------------ वायव्य कोण
मकर और कुम्भ लग्न ---उत्तर दिशा
मीन लग्न ------------इशान कोण
अब सवाल उठता है चोरी करने वाला कौन हो सकता है तो
नीचे लिखे लग्नो के आधार पर पता लगाया जा सकता है।
मेष लग्न ---ब्राह्मण या सम्मानीय भद्र पुरुष
वृषभ लग्न--क्षत्रिय
मिथुन लग्न -----वेश्य
कर्क लग्न -------शुद्र या सेवक वर्ग
सिंह लग्न ------स्वजन या आत्मीय व्यक्ति
कन्या लग्न---- कुलीन स्त्री ,घर की बहू -बेटी या बहन
तुला लग्न ----पुत्र ,भाई या जमाता
वृश्चिक लग्न-- इतर जाति का व्यक्ति
धनु लग्न ---स्त्री
मकर लग्न ---वेश्य या व्यापारी
कुम्भ लग्न---चूहा
मीन लग्न----खोयी घर में ही पड़ी है कहीं ( मिस-प्लेस )
यह सब जानने के बाद यह भी प्रश्न उठता है , जो सामान चोरी हुआ है वह मिलेगा या नहीं ? इसके लिए प्रश्न कुंडली में चंद्रमा की स्थिति देखी जाती है। यहाँ पर चंद्रमा को मालिक और सातवें भाव को चोर माना जाता है।चौथे भाव को धन -प्राप्ति की जगह और लग्न -भाव को चोरी गया सामानमाना जाता है।
1) लग्न -भाव का स्वामी अगर सातवें घर या उसके स्वामी के साथ हो तो कोशिश करने पर चोरी गया धन मिल जाता है।
2)अगर लग्न -भाव का स्वामी अष्ठम में हो तो चोर खुद ही
चोरी की गयी वस्तु लौटा देगा।लेकिन ग्रह अस्त होगा तो
चोरी का पता चलेगा पर वस्तु नहीं मिलेगी।
3)लग्न-भाव का स्वामी दसवें घर के स्वानी के साथ है तो चोर माल सहित पकड़ा जायेगा।
4) अगर लग्नेश की दृष्टि दसवें घर के स्वामी पर नहीं पद रही हो तो चोरी गयी वस्तु नहीं मिलेगी।
5)अगर सातवें घर का स्वामी सूर्य के साथ अस्त हो तो बहुत समय बाद चोर का तो पता चल जायेगा पर वास्तु नहीं मिलेगी।
6)अगर सप्तमेश और लग्नेश साथ में हो तो चोर राज भय से डर कर खुद ही माल को दे देता है।
7)अगर सप्तमेश पर लग्नेश की दृष्टि ना पड़ रही हो तो ना चोर को लाभ लाभ होता है ना मालिक को ,माल को मध्यस्थ ही हड़प लेता है।
8)प्रश्न कुंडली में अष्ठम भाव चोर के धन रखने का स्थान होता है इसलिए अगर धन भाव का स्वामी अष्ठम में ही बैठा हो तो माल नहीं मिलेगा।और अगर धन भाव का स्वामी सप्तम में हो तो भी माल नहीं मिलता क्यूँ कि "चंद्रास्वामी चोर सप्तम " के अनुसार सप्तम भाव स्वयं चोर है।
9) धनेश अगर अष्टमेश के साथ हो तो धन मिल जाता है।
10) अगर अष्टमेश ,दशमेश के साथ हो तो राज-पुरुष चोर का पक्षपाती ही माल नहीं मिलेगा।
अब चोरी हुई वस्तु कहाँ छिपाई गयी है इस पर विचार करते हैं।
1) लग्नेश और सप्तमेश का आपस में परिवर्तन या दोनों एक ही भाव में हो तो वस्तु घर में ही कहीं छुपी या छुपाई गयी है।
2) चंद्रमा अगर लग्न में हो तो वस्तु पूर्व दिशा में होगी और अगर सप्तम में हो तो वस्तु पश्चिम में मिलेगी।चंद्रमा अगर दशम ने हो तो दक्षिण और चतुर्थ में हो तो वस्तु उत्तर दिशा में मिलेगी।
3) अगर लग्न में अग्नितत्व राशि ( मेष ,सिंह ,धनु ) हो तो वस्तु घर के पूर्व,अग्नि -स्थान , रसोई घर में ही मिल जाती है।
4 ) लग्न में अगर पृथ्वी -तत्व राशि ( वृषभ ,कन्या ,मकर ) हो तो वस्तु दक्षिण दिशा में भूमि में दबी मिलेगी।
5 ) अगर लग्न में वायु -तत्व राशि ( मिथुन ,तुला कुम्भ ) हो तो वस्तु पश्चिम दिशा में हवा में लटकाई गयी है।
6 )लग्न में जल-तत्व राशि ( कर्क ,वृश्चिक ,कुम्भ ) हो तो वस्तु जलाशय के पास या उसके आस-पास उत्तर दिशा में मिलेगी।
ग्रहों के हिसाब से चोर कौन है और कितनी उम्र का है ये भी
पता लगाने की कोशिश करते हैं।
1) प्रश्न -कुंडली में यदि लग्न पर सूर्य-चन्द्र दोनों की दृष्टि पड़रही हो तो वस्तु किसी घर के व्यक्ति ने ही चुराई है।और यदि लग्नेश ,सप्तमेश से युक्त हो कर लग्न में हो तो भी चोरी किसी घर के व्यक्ति ने ही की है।
2)लग्न पर सूर्य या चन्द्र किसी एक ही की दृष्टि पड़ रही हो
तो वस्तु किसी आस पास रहने वाले व्यक्ति ने चुराई है।
3)अगर सप्तमेश द्वादश या तृतीय स्थान में हो तो घर के नौकर ने चोरी की है।
4 )अगर सप्तमेश स्वग्रही या अपनी उच्च राशि में हो तो चोरी पेशेवर चोर ने की है। यहाँ पर चोर की शक्ति का ज्ञान
लग्न,सप्तम और दशम भाव के बल के अनुसार करना चाहिए।
5) प्रश्न -कुंडली में अगर सूर्य बलवान हो तो पिता या
पितातुल्य व्यक्ति ,चंद्रमा बलि हो तो माँ या मातातुल्य
महिला ,शुक्र बली हो तो महिला ,वृहस्पति बलि हो तो घर के मालिक ने ,शनि बलि हो तो पुत्र ने और मंगल बलि हो  तो भाई या सगा भतीजा तथा बुध बलवान हो तो मित्र या मित्र -सम्बन्धियों ने चोरी की है।
चोर की उम्र क्या हो सकती है।
लग्न में अगर शुक्र ----युवक
बुध ---बालक
गुरु -----वृद्ध
मंगल--युवक
शनि -वृद्ध चोर है।
लग्न और दशम भाव के मध्य सूर्य है तो चोर बालक है। दशम भाव और सप्तम भाव के मध्य सूर्य हो तो चोर युवक है। लग्न और चतुर्थ भाव के मध्य सूर्य हो तो चोर अत्यंत वृद्ध है।